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Ajay Kumar

  • परिचय : अजय कुमार अजय कुमार बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ के समाजशात्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर ... moreedit
“राष्ट्र-निर्माण का गांधीमार्ग (गांधीयन वे ऑफ नेशन बिल्डिंग)” तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की संक्षिप्त रिपोर्ट स्थान : सेमिनार हाल भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला। दिनांकः 20-22, मई, 2019. आयोजक : भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान... more
“राष्ट्र-निर्माण का गांधीमार्ग (गांधीयन वे ऑफ नेशन बिल्डिंग)” तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की संक्षिप्त रिपोर्ट
स्थान : सेमिनार हाल भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला।
दिनांकः  20-22, मई,  2019.
आयोजक : भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला।
संगोष्ठी संयोजक : प्रोफेसर आनंद कुमार,  सीनियर फ़ेलो नेहरू स्मारक पुस्तकालय एवं संग्रहालय, नई दिल्ली।
रिपोर्ट प्रस्तुतीकरण
अजय कुमार,
फ़ेलो
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला।
प्रस्तुत शोध आलेख दलितों पर लिखे गये इतिहास के बारे में है, अतः इसका जोर इतिहास लेखन पर है न कि वास्तविक इतिहास पर। इतिहास की जो बातें इस प्रक्रिया में सामने आएंगी वे मुख्य रूप से उन पुस्तकों और लेखों की चर्चा के दौरान होगा जो दलितों के... more
प्रस्तुत शोध आलेख दलितों पर लिखे गये इतिहास के बारे में है, अतः इसका जोर इतिहास लेखन पर है न कि वास्तविक इतिहास पर। इतिहास की जो बातें इस प्रक्रिया में सामने आएंगी वे मुख्य रूप से उन पुस्तकों और लेखों की चर्चा के दौरान होगा जो दलितों के इतिहास पर हैं। अतः जो निरंतरता इतिहास से अपेक्षित है वह शायद इसमें नहीं मिल पाएगी क्योंकि इस शोध आलेख का उद्देश्य दलितों से संबंधित इतिहास लेखन पर प्रकाश डालना है। इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि दलितों पर इतिहास लेखन की कुछ प्रमुख धाराओं पर यहां विचार किया गया है न कि इस विषय पर समस्त लेखन को।
अभी हाल ही में इतिहासकारों का एक समूह, जो अ-मार्क्सवादी नहीं है और जो पद्दलित (दलित) अध्ययन समूह के नाम से जाना जाता है, ने इतिहास को नीचे से अध्ययन करना शुरू किया है। ये लोग आम जनता के इतिहास की अवहेलना करने के लिये ‘पारम्परिक’ मार्क्सवादी इतिहासकारों की इस आधार पर आलोचना करते हैं कि जैसे दलित वर्गों (सबआल्टर्न क्लास) का अपना कोई इतिहास नहीं है और वे पूर्णतः उन्नत वर्गों या अभिजनों पर अपने संगठन और मार्गदर्शन के लिये निर्भर रहते हैं। इस प्रकार भारतीय समाजशास्त्र में अधीनस्थ अथवा दलितोंद्वार परिप्रेक्ष्य समाज के दलित वर्गो का अध्ययन कर उनका उद्वार एवं सामाजिक-आर्थिक उत्थान करने पर बल देता है। इस परिप्रेक्ष्य को अपनाने वाले विद्वान भारतीय इतिहास को समझने में जनसाधारण की राजनीति में भूमिका को महत्व प्रदान करते हैं, तथा जनसाधारण एवं विशिष्टजन को दो परस्पर विरोधी संरचनात्मक द्वैधता के रूप में प्रतिपादित करने का खण्डन किया है। इन विद्वानों ने यह भी स्वीकार किया है कि उपनिवेशवादी एवं नवराष्ट्रवादी इतिहासकारों ने विशिष्टजनों की भूमिका को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया है तथा जनसाधारण की भूमिका को नगण्य माना है, इस प्रकार की सोच भारतीय समाज की वास्तविकता को समझने में सहायक नहीं है, न ही, इस परिप्रेक्ष्य द्वारा दलित, कृषक एवं आदिवासी आन्दोलनों को समझा जा सकता है। मुख्यधारा के समाजशास्त्र ने दलितों की समस्याओं पर गम्भीरता से ध्यान न देने के कारण वर्तमान समय में दलितों की समस्याओं के अध्ययन हेतु एक नवीन परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता है। इस प्रकार से भारतीय समाज का कोई भी अध्ययन जनसाधारण, या दलित वर्ग के अध्ययन के बिना अधूरा हैं यदि इन वर्गो का अध्ययन नहीं किया जाता है तो भारतीय राजनीति एवं भारतीय समाज के विकास में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका को नहीं समझा जा सकता है। अतः इस परिप्रेक्ष्य के अध्ययन के आधार पर भारतीय सामाजिक प्रस्थिति में दलितो की प्रस्थिति की वास्तविकता को समझने तथा जिसके आधार पर इतिहास लेखन की वैकल्पिक अध्ययन की समाजशास्त्रीय प्रासंगिकता और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। अतः इसके आधार पर समाजशास्त्रीय निष्कर्ष निकाले जा सकते है।
इस पुस्तक के लेखक समाज विज्ञानी बद्री नारायन अपने गहन क्षेत्र कार्य के आधार पर दलित राजनीति और दलित आंदोलन के संदर्भ में यह पाते है कि भारत के वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में दलित एक बड़ी चुनावी ताकत के रूप में उभरकर आए हैं और लगभग... more
इस पुस्तक के लेखक समाज विज्ञानी बद्री नारायन अपने गहन क्षेत्र कार्य के आधार पर दलित राजनीति और दलित आंदोलन के संदर्भ में यह पाते है कि भारत के वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में दलित एक बड़ी चुनावी ताकत के रूप में उभरकर आए हैं और लगभग सभी राजनीतिक दलों के लिए यह अनिवार्य हो गया है कि वे उन्हें अपने पाले में लाने की कोशिश करें। 'हिन्दुत्व का मोहिनी मंत्र' पुस्तक हिन्दुत्ववादी शक्तियों द्वारा दलितों को अपनी तरफ खींचने की मोहक रणनीतियों का विखंडन दिखाती है कि कैसे ये ताकतें दलित जातियों के लोकप्रिय मिथकों, स्मृतियों और किंवदन्तियों को खोजकर उनकी हिन्दुत्ववादी व्याख्या करती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में किए गए मौलिक शोध पर आधारित इस पुस्तक में बताया गया है कि दलित नायकों को मुस्लिम आक्रान्ताओं के विरुद्ध लडऩे वाले योद्धाओं के रूप में प्रस्तुत करते हुए हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ उन्हें हिन्दू धर्म और संस्कृति के रक्षकों के रूप में पुनव्र्याख्यायित करती हैं, या फिर उन्हें राम का अवतार बताकर दलित मिथकों को एक बड़े और एकीकृत हिन्दू महावृत्तान्त से जोडऩे का प्रयास करती हैं। लेखक ने पुस्तक में उत्तर भारत के ग्रामीण समाज में 'पापुलर' की संरचना और उसमें पिरोए गए साम्प्रदायिक तत्त्वों को भी समझने की कोशिश की है। सबसे दिलचस्प तथ्य पुस्तक में यह निकलकर आता है कि दलितों के अतीत की हिन्दुत्ववादी पुनव्र्याख्या को दलित समुदाय एक शक्तिशाली पूँजी के रूप में लेते हैं जिसे वे एक तरफ ऊपरी जातियों में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने और दूसरी तरफ सवर्ण प्रभुत्व को क्षीण करने के लिए साथ-साथ इस्तेमाल करते हैं। इतिहास, राजनीति, नृतत्वशास्त्र और दलित अध्ययन में रुचि रखने वाले छात्रों, शोधार्थियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए समान रूप से उपयोगी पुस्तक।
हिन्दुत्व का मोहिनी मंत्र' पुस्तक हिन्दुत्ववादी शक्तियों द्वारा दलितों को अपनी तरफ खींचने की मोहक रणनीतियों का विखंडन दिखाती है।
पिकेटी की यह किताब “21वीं सदी में पूंजी” आय और संपत्ति में गैर-बराबरी के बारे में एक ऐसा राजनीतिक अर्थशास्त्रीय अध्ययन है जो पूरी तरह से ठोस आर्थिक आंकड़ों की गहराई से की गयी जांच-पड़ताल पर आधारित है। पिकेटी और सारी दुनिया में फैले उनकी... more
पिकेटी की यह  किताब “21वीं सदी में पूंजी” आय और संपत्ति में गैर-बराबरी के बारे में एक ऐसा राजनीतिक अर्थशास्त्रीय अध्ययन है जो पूरी तरह से ठोस आर्थिक आंकड़ों की गहराई से की गयी जांच-पड़ताल पर आधारित है। पिकेटी और सारी दुनिया में फैले उनकी तरह के बीसियों विद्वान शोधकर्ता सहयोगियों ने दुनिया के बीस से ज्यादा विकसित और विकासशील देशों की राष्ट्रीय आय, उनके नागरिकों की आय और संपत्ति के बारे में तमाम आंकड़ों को इकट्ठा करके आय और संपत्ति के मामले में दुनिया के विभिन्न देशों में और साथ ही औसतन सारी दुनिया में गैर-बराबरी के जिस इतिहास की रचना की है, उसे अर्थशास्त्र की दुनिया में एक अनूठी उपलब्धि माना जा रहा है। पिकेटी ने इन तथ्यों के आधार पर माल्थुस और युंग से लेकर रेकार्डो तथा मार्क्स के “राजनीतिक अर्थशास्त्र” की समीक्षा की है, उनकी विशेषताओं और कमजोरियों की ओर संकेत किया है और आगे आने वाले समय में एक गैर-बराबरी से मुक्त समृद्ध समाज के निर्माण के लिये कौन से ठोस उपाय हो सकते हैं, उनके बारे में विचार का एक व्यवहारिक आधार प्रदान किया है। इस किताब की अब तक अँग्रेजी संस्करण की पचास लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी है। पिकेटी के इस अध्ययन के लिये उन्हें अमेरिका के व्हाइट हाउस में भी विचार के लिये बुलाया गया था।
दलित-बहुजन मुक्ति आंदोलन तभी व्यापक होगा जब वह बहुजन के बड़े हिस्से मजदूरों-किसानों के संघर्षों के साथ एकता कायम करेगा। उसे अन्य न्यायपूर्ण संघर्षों के साथ भी एकता बनानी होगी। यही मंशा डॉ. आंबेडकर ने भी जाहिर की थी।
दलित आंदोलन अधीनस्थों के आंदोलन की समीक्षा- अजय कुमार, भारतीय समाजशास्त्र समीक्षा सामाजिक व्यवस्था में दलित सामाजिक स्तरीकरण का एक हिस्सा रहे हैं। सामाजिक स्तरीकरण समाजशास्त्र (अधीनस्थ समाजशास्त्र और समाज शास्त्रियों) का प्रमुख विषयवस्तु... more
दलित आंदोलन अधीनस्थों के आंदोलन की समीक्षा- अजय कुमार,
भारतीय समाजशास्त्र समीक्षा
सामाजिक व्यवस्था में दलित सामाजिक स्तरीकरण का एक हिस्सा रहे हैं। सामाजिक स्तरीकरण समाजशास्त्र (अधीनस्थ समाजशास्त्र और समाज शास्त्रियों) का प्रमुख विषयवस्तु व अध्ययन क्षेत्र रहा है, इसलिए समाजशास्त्र में इस तरह के अध्ययनो का महत्व बढ़ रहा है। इस तरह के अध्ययन पूर्णतः समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र में समाहित होने के साथ-साथ जहाँ शास्त्रीय समाजशास्त्रीयों की अवधारणाओं से सम्बन्धित है, वहीं समाजशास्त्र में शुरु हुए सामाजिक आंदोलनो के अध्ययन से भी सम्बन्धित है, जिसके कारण इस अध्ययन की उपयोगिता महत्वपूर्ण हो जाती है। अध्ययन का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्योंकि सामाजिक आंदोलनो सम्बन्धित सामाजिक प्रक्रियाओं को भी समाजशास्त्र में प्रमुखता से स्थान दिया रहा है। इतिहास में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों में परिवर्तन कुछ विशिष्ट आदर्शों एवं दृष्टियों की शक्ति द्वारा हुआ है। इसी प्रकार का आश्चर्यजनक परिवर्तन परम्परागत भारत में प्रगति पर है और जातिगत सम्बन्धों से जुड़े पुराने मूल्य अत्यधिक तनाव में हैं। इसी प्रकार का एक महान परिवर्तन आधुनिक भारतीय समाज में हमारे समय का दलित रुपान्तरण है। भारतीय समाज की दलित दृष्टि उच्च जातियों की दृष्टि से भिन्न है। अधीनस्थ समुदाय अपनी नई मानवता के एक नए अर्थ तक पहुंच चुके हैं और नए आधुनिक भारत के निर्माण की ओर अग्रसर है। अतः यह उचित है कि इस रुपान्तरण के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक तत्वों को खोजा जाए। हमें राष्ट्र के लिए इसकी उपयोगिता एवं भविष्य के लिए इसके सम्भावित परिणामों पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा। दलित अधीनस्थ समाजशास्त्र सीमान्त जनसमूह की इन्हीं आकांक्षाओं एवं संघर्ष का अध्ययन करता है। समाज में जिन्हें निम्नतम स्थान प्राप्त था, वे उच्च जाति, मध्यम वर्ग, नगरीय हिन्दू समाज शास्त्रियों द्वारा ध्यान न दिए जाने के कारण सदैव अदृश्य रहे। आज वे पूर्ण दृष्टि में हैं और ज्ञान के प्रतिनिधित्व में अपनी उचित हिस्सेदारी की मांग कर रहे है, तथा उनके द्वारा अपनी ज्ञान व्यवस्था का निर्माण करने के प्रयासों का उददेश्य जाति व्यवस्था को समाप्त करना है। बढ़ते बौद्धिक दलित सक्रियतावाद ने दलित बहुजन सांस्कृतिक जीवन को, क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय स्तरों पर प्रभावित किया है, वर्तमान समाजशास्त्र को इस अधीनस्थ दलित बौद्धिक सक्रियतावाद की नई प्रवृत्ति को समाजशास्त्रीय रुप से समझना आवश्यक है। वर्तमान भारत में दलित बौद्धिक, सक्रियता एक अत्यधिक रचनात्मक परिदृश्य का प्रतिनिधित्व कर रही है, जिसमें दलित वास्तविकता को एक सैद्धान्तिक स्तर पर अर्थ प्रदान करने की तात्कालिक आवश्यकता महसूस की जा रही है। ये बौद्धिक प्रयास यह भी प्रदर्शित करते हैं कि क्या भविष्य में दलित सिद्धान्त एक व्यापक स्वरुप धारण कर सकता है। दलित अधीनस्थ समाजशास्त्र का उद्देश्य यह भी जानना है कि दलित ज्ञान व्यवस्थाएं क्या है, तथा वे किस सीमा तक दलित पुनरुत्थान की आधुनिक योजना की प्राप्ति के लिए कहां तक उपयोगी है। इस प्रकार से दलित वर्ग के दृष्टिकोणों, विश्वासों, आकांक्षाओं और विचारों का अध्ययन हमें अपनी संकल्पनाओं को परिभाषित और पुनर्परिभाषित करने में हमारी मदद कर सकता है।
इस प्रकार से उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियां मानव मुक्ति की शताब्दियां रही हैं, विशेषकर दक्षिण एशिया में बहिष्कृत, कलंकित और अपवंचित किए गए दलित समुदायों के लिए। समाज सुधारकों और दलित नेताओं ने महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल, गुजरात, पंजाब, बंगाल और उत्तर प्रदेश के एक बड़े हिस्से में मुक्ति और समानता के दलित प्रश् न को हाशिये से बाहर कर मुख्यधारा की राजनीति का एक केंद्रीय प्रश् न बना दिया। वास्तव में समकालीन दलित नेतृत्व ने राजनीतिक शक्ति हासिल करके सामाजिक बदलाव हासिल करने की कोशिश की है। इस प्रक्रिया की एक पड़ताल बताती है कि दलितों ने आधुनिक समय में लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था प्रकट की और गोलबंद होकर पीड़ा, अन्याय और हाशियाकरण के अनुभवों को राजनीतिक ताकत में बदलने का प्रयास किया है। इसके द्वारा दलित समुदायों को प्रतिनिधित्व, सत्ता, दृश्यात्मकता और मोलभाव की क्षमता हासिल हुई है। यह शोधपत्र दलितों की जनतांत्रिक दावेदारी के स्वरों को दर्ज करने का प्रयास करता है और साथ ही साथ यह बताता है कि इन सब कदमों के बावजूद दलित अभी भी चुनावी राजनीति में आरक्षित सीटों से राजनीतिक दलों से विधायिका में पहुंच रहे हैं। दूसरी ओर गैर दलित दल दलित हितों के लिए स्पष्ट आवाज नहीं उठा रहे हैं। भारतीय राजनीति में आरक्षित स्थानों से दलित प्रतिनिधित्व से जहां सामाजिक-राजनैतिक चेतना का विकास हुआ है वहीं विभिन्न संगठनों ने भी दलित नेतृत्व के लिए कार्य करके समाज के विकास में योगदान किया है। दलित समाज में जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान बढ़ा है क्योंकि वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व के माध्यम से दलित समाज ने अवसर पाकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की ताकत पैदा की है। इसके अतिरिक्त इस प्रस्तुत शोधपत्र में दलितों में पायी जाने वाली वंचनाओं का भी अध्ययन किया गया है। जिसने दलितों को संगठित कर उनमें एक राजनीतिक चेतना को विकसित किया है। उन्हें अपनी अस्मिता एवं पहचान को बचाने एवं सुदृढ़ करने के लिए एक आंदोलन के रुप में अन्ततः विकसित किया।
इस प्रकार भारतीय समाजशास्त्र परिषद की शोध पत्रिका भारतीय समाजशास्त्र समीक्षा के लिए प्रस्तुत शोधपत्र दलित आंदोलन: अधीनस्थ के आंदोलन की समीक्षा (एक समीक्षात्मक मूल्यांकन) के अंतर्गत भारत में हुए प्रमुख दलित आंदोलनो का वर्गीकरण एवं दलित आंदोलनो पर किए गए अकादमिक शोधकार्य बौद्धिक लेखनों की समीक्षा को प्रस्तुत किया गया है।
संकेत शब्द
दलित, आंदोलन, दलित आंदोलन, समाजशास्त्र, अधीनस्थ, दलित नेतृत्व, दलित समुदाय, दलित चेतना, राजनीति, दलित संगठन
बीसवीं सदी के आखिरी दो दशकों में भारतीय राजनीति को कांशीराम से ज्यादा किसी और नेता ने प्रभावित नहीं किया वे उत्तर-अंबेडकर दलित राजनीति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांतकार और सफलतम संगठनकर्ता थे। राजनीतिक चिंतन और आचरण के अपने अनूठे तरीके... more
बीसवीं सदी के आखिरी दो दशकों में भारतीय राजनीति को कांशीराम से ज्यादा किसी और नेता ने प्रभावित नहीं किया वे उत्तर-अंबेडकर दलित राजनीति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांतकार और सफलतम संगठनकर्ता थे। राजनीतिक चिंतन और आचरण के अपने अनूठे तरीके से उन्होंने आरक्षण के गर्भ से निकली दलित नौकरशाही के आधार पर पहले एक सामाजिक आंदोलन का ताना-बाना बुना और फिर योजनाबद्ध तरीके से बहुत कम संसाधनों में उसे चुनाव लड़ कर सत्ता में आने वाली एक कामयाब राजनीतिक पार्टी में बदल दिया। उनकी मुहावरेदार अभिव्यक्ति से कई नए राजनीतिक फिकरे निकले।
आजकल राजनीतिक दल पासियों को कितना महत्व दे रहे हैं इस बात को आगे बढ़ाते हुये कुछ इस तरह से कहा जा सकता है कि उत्तर-प्रदेश में भाजपा ने काम न करने वाले सांसदों के टिकट काटे हैं उनमें सबसे अधिक दलित समुदाय के मौजूदा सांसद ही भाजपा को मिले जो... more
आजकल राजनीतिक दल पासियों को कितना महत्व दे रहे हैं इस बात को आगे बढ़ाते हुये कुछ इस तरह से कहा जा सकता है कि उत्तर-प्रदेश में भाजपा ने काम न करने वाले सांसदों के टिकट काटे हैं उनमें सबसे अधिक दलित समुदाय के मौजूदा सांसद ही भाजपा को मिले जो नॉन परर्फ़ोर्मर हैं, और उनमें भी खासकर पासियों की संख्या सबसे अधिक है। जैसे शाहजहांपुर से कृष्णा राज, बाराबंकी से प्रियंका रावत, हरदोई से अंशुल वर्मा, बहराइच से सावित्रीबाई फुले, (सभी पासी), हाथरस से कमलेश दिवाकर, मछली शहर से राम चरित्र निषाद, इटावा से अशोक दोहरे, सोनभद्र से छोटेलाल खरवार। दिल्ली में उदित राज और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री विजय सांपला का भी टिकट भारतीय जनता पार्टी ने काट दिया है।
#MeToo अभियान क्या सामाजिक न्याय के व्यापक सवालों को भी उठायेगा। ये एक बड़ा सवाल बन गया है। महिलाओं का शोषण और दोयम दर्जे का व्यवहार कोई फौरी मामला तो है नहीं। यह सवाल तो सामाजिक न्याय के व्यापक सवाल का हिस्सा है जो समाज की व्यापक संरचना... more
#MeToo अभियान क्या सामाजिक न्याय के व्यापक सवालों को भी उठायेगा। ये एक बड़ा सवाल बन गया है।  महिलाओं का शोषण और दोयम दर्जे का व्यवहार कोई फौरी मामला तो है नहीं। यह सवाल तो सामाजिक न्याय के व्यापक सवाल का हिस्सा है जो समाज की व्यापक संरचना के साथ जुड़ा है। ये बात अलग है कि #MeToo ने अभी सिर्फ मीडिया जगत और बॉलीवुड की घटनाओं तक खुद को सीमित रखा है। लेकिन जब तक यह व्यापक फलक में महिलाओं से जुड़े सवाल जिसमें दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक महिलाओं पर रोजाना हो रहे उत्पीड़न के मुद्दे नहीं उठायेगा यह सिर्फ चार दिनों के लिये मीडिया में सुर्खियां बटोरने वाला अभियान ही साबित होगा।
भारतीय संसद में जब भगत सिंह की प्रतिमा लगाई गयी तो उसमें उनको पगड़ी पहने हुए दिखाया गया है। इस तरह से भारतीय शासक वर्ग ने मेहनतकश जनता के जीवन में न्याय, समता और खुशहाली लाने का भगत सिंह का सपना त्याग कर मुट्ठीभर लोगों के लिए उनके लिए... more
भारतीय संसद में जब भगत सिंह की प्रतिमा लगाई गयी तो उसमें उनको पगड़ी पहने हुए दिखाया गया है। इस तरह से भारतीय शासक वर्ग ने मेहनतकश जनता के जीवन में न्याय, समता और खुशहाली लाने का भगत सिंह का सपना त्याग कर मुट्ठीभर लोगों के लिए उनके लिए विकास का रास्ता अपना लिया है। इस तरह से भगत सिंह की प्रतिमा लगाना मात्र ढोंग और पाखंड है और यह भगत सिंह का अपमान भी। यह शासकों और शोसकों का आजमाया हुआ तरीका होता है कि जिन महापुरुषों के विचारों को नकारना संभव न हो, उन्हें देवता बना दिया जाए। भारत में कबीर जो मठों, आडंबरों के विरोधी थे, उनके नाम पर पंथ चलाकर उन्हें भी मठों में कैद कर दिया गया। महावीर और गौतम बुद्ध जो मूर्ति पूजा के विरोधी थे, उनकी मूर्ति बनाकर उनकी पूजा होने लगी। बिल्कुल इसी तरह से भगत सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही कुचक्र रचा जा रहा है।
अम्बेडकर यह मानते थे कि मनुष्यों में केवल राजनीतिक समानता और कानून के समक्ष समानता स्थापित करके समानता के सिद्धांत को पूरी तरह सार्थक नहीं किया जा सकता। जब तक उनमें सामाजिक-आर्थिक समानता स्थापित नहीं की जाती तब तक उनकी समानता अधूरी रहेगी।... more
अम्बेडकर यह मानते थे कि मनुष्यों में केवल राजनीतिक समानता और कानून के समक्ष समानता स्थापित करके समानता के सिद्धांत को पूरी तरह सार्थक नहीं किया जा सकता। जब तक उनमें सामाजिक-आर्थिक समानता स्थापित नहीं की जाती तब तक उनकी समानता अधूरी रहेगी। हमारे देश पर आज की दुनिया में भूमंडलीकरण की पूंजीवादी प्रक्रियाओं के चलते पुर्नउपनिवेशीकरण का खतरा मंडरा रहा है तो दूसरी तरफ धर्म और संस्कृति के नाम पर सांप्रदायिक शक्तियां लगातार मजबूत हो रही हैं। अंधराष्टवाद के विरुद्ध प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक राष्ट्रवाद को अपनाना हमारे लिये जरूरी हो गया है, क्योंकि नवसाम्राज्यवादी और नवफासीवादी-शक्तियों की मार अततः उन्हीं लोगों पर पड़ती हैं जो सामाजिक अन्याय व बहिष्करण के शिकार हैं। अम्बेडकर ने जिन अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए कहा था वे सामाजिक स्तर पर चाहे कुछ कम हुए हों लेकिन भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में आर्थिक स्तर पर पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गये हैं।
जब कोई फल पक जाता है, तब उसे तोड़ने के लिए सभी लपक पड़ते हैं. उसी तरह आज राजनीति में आंबेडकर चहेते हो गए हैं, लेकिन आंबेडकर दिखने में चाहे जितने आकर्षक हों, अपनाने में उतने ही कठिन हैं. वर्तमान राजनीतिक दल इस बात को जानते हैं इसीलिए वे 14... more
जब कोई फल पक जाता है, तब उसे तोड़ने के लिए सभी लपक पड़ते हैं. उसी तरह आज राजनीति में आंबेडकर चहेते हो गए हैं, लेकिन आंबेडकर दिखने में चाहे जितने आकर्षक हों, अपनाने में उतने ही कठिन हैं. वर्तमान राजनीतिक दल इस बात को जानते हैं इसीलिए वे 14 अप्रैल और 6 दिसंबर पर उनका नाम तो लेते हैं लेकिन उनकी वैचारिक तेजस्विता से डरते हैं.
पहले गांवों में सुकून होता था, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में वह सुकून भी अब खो गया है। तकनीक ने गांवों को बेहतर बनाने का सपना दिखाया हो, लेकिन तकनीक ने तकलीफ भी दी है। नई अर्थव्यवस्था में शहर और शहरीकरण का बोलबाला बढ़ा है। इस तरह के अन्य... more
पहले गांवों में सुकून होता था, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में वह सुकून भी अब खो गया है। तकनीक ने गांवों को बेहतर बनाने का सपना दिखाया हो, लेकिन तकनीक ने तकलीफ भी दी है। नई अर्थव्यवस्था में शहर और शहरीकरण का बोलबाला बढ़ा है। इस तरह के अन्य बदलावों को इस पुस्तक  में शामिल किया गया है। छोटे-छोटे वृतांतो के माध्यम से और ‘बदलता गांव बदलता देहात’ में पिछले तीन दशकों में गांव के बदलने या न बदलने की समाज वैज्ञानिक सतेंद्र कुमार ने इसकी समाजशास्त्रीय ढंग से गहन जांच-पड़ताल की है।
सवर्णों की राजनैतिक निष्ठा सत्ता के साथ ही रहेंगी।
Research Interests:
आज गाँधी सरकारी हो गए। वो गाँधी जो जनता के गाँधी थे। कहाँ है गाँधी आज। राजघाट के बंद तालो में। मृतप्राय गाँधीवादी संस्थाओं में। ....
ऐतिहासिक मई दिवस का जन्म काम के घंटे कम करने के आंदोलन से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। काम के घंटे कम करने के इस आंदोलन का मजदूरों के लिए बहुत अधिक राजनीतिक महत्व है। जब अमेरिका में फैक्ट्री  व्यवस्था शुरू हुई लगभग तभी यह संघर्ष शुरू हुआ।
Research Interests:
साथी डॉ.कन्हैया कुमार को बधाई के इस अवसर पर कि शिक्षा सबको मुक्त करती हैं। बहुत दिनों के लंबे इंतजार के बाद या यू कहें की एक लंबे संघर्ष के दौर से गुजरते हुये साथी कन्हैया कुमार अब डॉ.कन्हैया कुमार के नाम से जाने जाएँगे। साथी डॉ.कन्हैया... more
साथी डॉ.कन्हैया कुमार को बधाई के इस अवसर पर कि शिक्षा सबको मुक्त करती हैं।
बहुत दिनों के लंबे इंतजार के बाद या यू कहें की एक लंबे संघर्ष के दौर से गुजरते हुये साथी कन्हैया कुमार अब डॉ.कन्हैया कुमार के नाम से जाने जाएँगे।
साथी डॉ.कन्हैया कुमार को बधाई देने के साथ ही देश के उस विश्वविद्यालय या यूं कहें कि उस लोकतान्त्रिक विश्वविद्यालय को धन्यवाद जिसने साथी डॉ.कन्हैया कुमार को या हमारे जैसों को (पीएच-डी.) जैसी उच्च डिग्री तक पहुचनें मे मदद की। जाहिर सी बात हैं कि यदि उस विश्वविद्यालय में लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थान न मिला होता तो शायद कन्हैया कुमार जैसे लोग कहीं मजदूर किसी दुकान पर कुछ छोटा मोटा काम कर रहे होते या हो सकता हैं किसी छोटे कालेज में पढ़ाई करते हुये क्लर्क या कहीं कुछ न कुछ कर रहे होते। इस तरह से देखा जाये तो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ने देश के छोटे-छोटे शहरों, कस्बों, छोटी जातियों, आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के छात्र-छात्राओं को अपनी प्रवेश नीति के माध्यम से उच्च शिक्षा में लाने के साथ ही सार्वजनिक जीवन में आने के लिए भी मौका देते हुये भविष्य के लिए एक नागरिक के तौर पर तैयार किया हैं। जाहिर सी बात है इस जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ने हमेशा ही लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को यदि नही निभाया होता तो शायद उसकी पहचान भी सिर्फ डिग्री देने वाले देश के किसी अन्य विश्वविद्यालय की तरह ही होती।